नमस्कार मित्रो 🌹🌹🙏🙏
यों तो मैं मुख्यत: ग़ज़लें ही कहता हूं।लेकिन कभी-कभी दोहे,नवगीत और कुंडलिया आदि भी कह लेता हूं।नवगीत आज की बहुत लोकप्रिय विधा है। नूतन बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से इसमें ह्रदय में सीधे उतरने वाले कथ्य पिरोकर साहित्यकार आम जन मानस के सामने रख रहे हैं,जिसे बहुत पसंद किया जा रहा है।
काफ़ी अरसे बात एक नवगीत सृजित हुआ है जो आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं। अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य ही अवगत कराइए :
एक नवगीत
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मानवता की पीड़ा,
आज हुई है बहुत घनी।
अमन-चैन को है यह,
कैसी मुश्किल ने घेरा।
भय-आतंक जमाकर,
बैठ गए अपना डेरा।
ख़बरें अख़बारों में,
मिलतीं पढ़ने ख़ून सनी।
मर्यादा के बंधन,
कोई कहाँ भला माने।
तोड़ रहे हैं सब ही,
रिश्तों के ताने-बाने।
भाई से भाई की,
अब रहती है नित्य ठनी।
हुए संगठित जबसे,
हिंसा,द्वेष,घृणा,छल-बल।
प्रेम-रीति पर भय के,
छाए रहते हैं बादल।
कैसे आख़िर जग में,
फिर समरसता रहे बनी।
--- ©️ ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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