इन दिनों मौसमी सर्दी और ज़ुकाम ने जकड़ रखा है। हमारे शहर रामपुर में आजकल डेंग्यू का प्रकोप भी अपने चरम पर है इसलिए और अधिक सावधानी बरत रहे हैं।बिस्तर में लेटे-लेटे अपनी एक काफ़ी पहले कही गई ग़ज़ल देखने लगा।पहले इसमें सिर्फ़ पांच शेर ही कहे थे ।दो और शेर ज़ेहन में आए और पुराने कुछ अशआर में आंशिक संशोधन भी किया। मैं अक्सर ही अपनी पुरानी ग़ज़लों को पढ़कर उनमें ज़रूरी संशोधन करता रहता हूं और नए अशआर भी जोड़ता रहता हूं।
तो लीजिए पेश है मेरी यह ग़ज़ल:
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सभी के काम पर उसकी नज़र है,
मगर इंसान फिर भी बे-ख़बर है।
जुदा पत्ते हुए जाते हैं सारे,
ये कैसा वक्त आया शाख़ पर है।
खटकता है वो कोठी की नज़र में,
बग़ल में एक जो छप्पर का घर है।
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सरे-बाज़ार ईमां बिक रहे हैं,
यही बस आज की ताज़ा ख़बर है।
यकीं जल्दी ही कर लेते हो सब पर,
कहीं धोखा न खाओ,इसका डर है।
इसे कैसे भला आसान कह दें,
मियां! ये ज़िंदगानी का सफ़र है।
कहानी में है जिसने जान डाली,
वही किरदार बेहद मुख्तसर है।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
(गूगल की कॉपीराइट पॉलिसी के तहत सभी अधिकार सुरक्षित)
बहुत उम्दा!
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आदरणीया 🌹🌹🙏🙏
Deleteवाह! बेहतरीन शायरी
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-11-22} को "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (चर्चा अंक-4606) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
आभार आदरणीया। ज़रूर उपस्थित रहूंगा।
DeleteVah vah zabardast
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
Deleteबेहद सुंदर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
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