यों तो मैं मूलत: ग़ज़लकार हूं परंतु रस परिवर्तन के लिए
यदा-कदा मुक्तक,दोहे, नवगीत और कुंडलिया आदि भी कह लेता हूं तो सोचा आप सुधी जनों के साथ ये दो कुंडलिया साझा करूं।अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं:
कुंडलिया-१
देते हैं सबको यहाँ,प्राणवायु का दान,
फिर भी वृक्षों की मनुज,लेता है नित जान।
लेता है नित जान, गई मति उसकी मारी,
जो वृक्षों पर आज,चलाता पल-पल आरी।
कहते सत्य 'विवेक', वृक्ष हैं कब कुछ लेते,
वे तो छाया-वायु,,फूल-फल सबको देते।
कुंडलिया-२
खाया जिस घर रात-दिन,नेता जी ने माल,
नहीं भा रही अब वहाँ, उनको रोटी-दाल।
उनको रोटी-दाल , बही नव चिंतन धारा,
छोड़ पुराने मित्र , तलाशा और सहारा।
कहते सत्य विवेक,नया फिर ठौर बनाया,
भूले उसको आज ,जहाँ वर्षों तक खाया।
---ओंकार सिंह विवेक
Bahut sundar abhivyakti,vah vah.
ReplyDeleteआभार।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१४-११-२०२२ ) को 'भगीरथ- सी पीर है, अब तो दपेट दो तुम'(चर्चा अंक -४६११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार आदरणीया। ज़रूर हाज़िर रहूंगा।
Deleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक कुंडलियां
ReplyDeleteअतिशय आभार
Deleteबेहद रोचक कुंडलिया।
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब कुण्डलियां ।
शुक्रिया
Deleteसुंदर कुण्डलियाँ !! भाव उत्तम।
ReplyDeleteजी शुक्रिया।
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