October 14, 2022

नई ग़ज़ल : पा ही लेंगे मंज़िल को ये मन में ठानी है

दोस्तो नमस्कार 🌹🌹🙏🙏


कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "सदीनामा'' में मेरी ताज़ा ग़ज़ल छपी है।इसके लिए मैं पत्रिका के संपादक मंडल का आभार प्रकट करता हूं और साथ ही संयोजक वरिष्ठ शायर श्री ओमप्रकाश नूर साहब का भी दिली शुक्रिया अदा करता हूं जिनके सहयोग से यह मुमकिन हो पाया। मैंने इस पत्रिका का साहित्यिक कॉन्टेंट पढ़ा है।यह पत्रिका मानवीय मूल्यों और जनसरोकारों से जुड़े विषयों पर किए गए सृजन को प्रमुखता से छापती है।

पत्रिका के कुछ पृष्ठ भी आप सुधी जनों के अवलोकनार्थ संलग्न कर रहा हूं:
ग़ज़ल ****ओंकार सिंह विवेक 
©️
आ  जाए  रस्ते  में   जो   भी  मुश्किल  आनी है,
पा  ही   लेंगे  मंज़िल  को  ये   मन  में   ठानी है।

लीपा-पोती   कर   दी   जाएगी  फिर  तथ्यों  पर,
सिर्फ़ दिखावे को कुछ दिन तक  जाँच करानी है।
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आती  ही   है  मुश्किल  सच   के   पैरोकारों  पर,
हम   पर   आई  है   तो   इसमें  क्या   हैरानी  है।

वक़्त  भी  करता  है  अपनी  रफ़्तार  कहीं धीमी?
हमको ही उसकी चाल से अपनी चाल मिलानी है।
©️
छोड़ो  भी  अब और  पशेमाँ  क्या  करना  उसको,
अपनी  ग़लती   पर  वो   ख़ुद  ही   पानी-पानी है।

दिन    भर    शोर-शराबा,   छीना-झपटी,  हंगामा,     
और   उन्हें  कितनी  संसद  की  साख  गिरानी है?

बीज  हसद-नफ़रत   के   ही   बोने   वाले  निकले,
जो   कहते   थे   सद्भावों  की   फ़स्ल   उगानी  है। 

बीत  गए वो  दिन  जब  आकर फुदका  करती थी,
आज  न  घर  की   खिड़की पर  गौरैया  आनी  है।
                         --  ©️ ओंकार सिंह विवेक 

 (यह चित्र साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय काव्य धारा रामपुर की लखनऊ इकाई द्वारा आयोजित कराए गए साहित्यिक समारोह के अवसर का है। चित्र में दाएँ से संस्था प्रमुख श्री जितेंद्र कमल आनंद जी, सम्मान ग्रहण करते हुए मैं तथा उसके बाद संस्था की लखनऊ इकाई के सचिव श्री शैलेंद्र सक्सैना जी,कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉक्टर शिव भजन कमलेश जी और लखनऊ इकाई के महासचिव श्री प्रेम शंकर शास्त्री जी के साथ कार्यक्रम संचालक श्रीमती राजबाला धैर्य जी नज़र आ रही हैं )



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