आज हम सब विरोधभासों और विसंगतियों से दो-चार होते हुए जीने को मजबूर हैं।इस विरोधाभास को देखकर ह्रदय व्यथित भी होता है।मानव ने अपने दोहरे चरित्र से परिस्थितियों को बहुत दुरूह और जटिल बना दिया है।कुछ इसी पृष्ठभूमि में एक नवगीत का सृजन हुआ है जो आप लोगों की प्रतिक्रिया हेतु साझा कर रहा हूँ:
आज एक नवगीत सामाजिक विरोधाभासों
और विसंगतियों के नाम
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--- ©️ओंकार सिंह विवेक
सच की फौजों पर अब,
झूठों का दल भारी है।
सड़क गाँव तक आकर,
नागिन-सी फुँफकार भरे।
पगडंडी बेचारी,
थर-थर काँपे और डरे।
नवयुग में विकास की,
यह अच्छी तैयारी है।
जनता को तो देता,
केवल वादों की गोली।
और हरे नोटों से,
भरता नित अपनी झोली।
जनसेवक है या फिर,
वह कोई व्यापारी है?
रहा तगादे* वाली,
चाबुक से वह डरा-डरा।
ख़ुद भूखा भी सोया,
पर क़िस्तों का पेट भरा।
होरी पर बनिए की,
फिर भी शेष उधारी है।
-----©️ओंकार सिंह विवेक
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*मूल शुद्ध शब्द तक़ाज़ा है
परंतु हिंदी में तगादा भी मान्य है
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
कड़वी सच्चाई व्यक्त करती रचना।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आपका
Deleteसत्य को कहता नवगीत
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
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