June 6, 2022

सच की फौजों पर अब झूठों------

सादर प्रणाम मित्रो🙏🙏🌷🌷

आज हम सब विरोधभासों और विसंगतियों से दो-चार होते हुए जीने को मजबूर हैं।इस विरोधाभास को देखकर ह्रदय व्यथित भी होता है।मानव ने अपने दोहरे चरित्र से परिस्थितियों को बहुत दुरूह और जटिल बना दिया है।कुछ इसी पृष्ठभूमि में एक नवगीत का सृजन हुआ है जो आप लोगों की प्रतिक्रिया हेतु साझा कर रहा हूँ: 
चित्र गूगल से साभार

आज एक नवगीत सामाजिक विरोधाभासों
 और विसंगतियों के नाम
 *******************************
 ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

सच की फौजों पर अब,  
झूठों का दल भारी है।              

सड़क  गाँव  तक  आकर,
नागिन-सी फुँफकार भरे।
पगडंडी बेचारी,
थर-थर  काँपे और डरे।
नवयुग में  विकास  की,
यह अच्छी तैयारी है।

जनता को तो देता,
केवल वादों की गोली।
और हरे नोटों से,
भरता नित अपनी झोली।
जनसेवक है या फिर,
वह कोई  व्यापारी है?

रहा तगादे* वाली,
चाबुक से वह डरा-डरा।
ख़ुद भूखा भी सोया,
पर क़िस्तों का पेट भरा।
होरी पर बनिए की,
फिर भी शेष उधारी है।
  -----©️ओंकार सिंह विवेक
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*मूल शुद्ध शब्द तक़ाज़ा है 
परंतु हिंदी में तगादा भी मान्य है
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

4 comments:

  1. कड़वी सच्चाई व्यक्त करती रचना।

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    1. उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आपका

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  2. Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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