February 22, 2020

काश!हमारा बचपन लौटे

यह मेरे छोटे भाई एडवोकेट आर.पी.एस.सैनी की जुड़वाँ बेटियों का छाया चित्र है जो मुझे परिवार में किसी अवसर पर या अनायास ही लिए गए छाया चित्रों में सबसे अधिक प्रिय है।अपना पसंदीदा होने के कारण इस फोटो को मैंने आठ वर्ष पूर्व फेसबुक पर साझा किया था।आज फेसबुक ने स्मरण कराया  तो इस फोटो के साथ जुड़ी भावनाओं के साथ कुछ लिख कर फिर से इसे साझा करने का मन हुआ।
इस छाया चित्र में बच्चियों के मुख पर खिली मुस्कान,मासूमियत और शरारत में जो निर्दोषता और स्वाभाविकता  छुपी हुई है उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे वैसे स्वाभाविकता और मासूमियत जैसे आकर्षक भाव हमारे अंदर और बाहर  से कम होते जाते हैं।हम चेहरे और आंतरिक भावों से अधिक से अधिक बनावटी होते जाते हैं,यहाँ तक की फोटो खिंचवाते वक़्त भी हमारे चेहरों पर स्वाभाविक भाव नहीं झलक पाते।काश!हम बच्चों जैसा स्वाभाविक व्यवहार करना सीख  सकें जिसमें किसी से बात करने से पहले सौ सौ बार यह न सोचना पड़े की अपने स्वार्थ और द्वेष को साधने के लिए हमें क्या बात करनी है और क्या नहीं।हमें किसी से बात करते समय चेहरे पर झूठी मुस्कान या बनावटी ग़ुस्सा न सजाना पड़े।चेहरे पर ग़ुस्से या ख़ुशी का जो भी भाव हो वह स्वाभाविक हो।इस ख़ूबी  के लिए हमें फिर से बच्चों से ही बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है।बच्चे अगर रूठते हैं तो भी नेचुरल रूप से और अगर खिलखिलाते हैं और ख़ुश होते हैं तो भी नेचुरल रूप से  ही। फिर हम बड़ों को क्या हो जाता है जो हम धीरे धीरे मासूमियत,निष्कलुषता और निर्दोषता से दूर होते चले जाते हैं?
सोचिए----सोचिए---सोचिए   और ख़ूब सोचिए कि हम कहने को तो बड़े होते जा  रहे हैं पर सोच और स्वभाव में आख़िर क्यों इतने छोटे होते चले जा रहे हैं?
ये मासूम बेटियाँ अब बड़ी होकर  लगभग 13 वर्ष की हो चुकी हैं तथा 7th स्टैंडर्ड में पढ़ रही हैं पर इनकी इस तस्वीर नें मुझे आज यह सब लिखने को प्रेरित किया जिसे आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ।
          ----- ओंकार सिंह विवेक
                सर्वाधिकार सुरक्षित

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