October 11, 2019

आसमान पर

ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
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है  आदमी  का  इतना  दख़ल आसमान पर,
जाने   से   डर   रहे   हैं  परिन्दे  उड़ान  पर।

बदलें  हैं लोग रोज़  ही जब बेझिझक बयाँ,
फिर कैसे हो यक़ीन किसी की ज़ुबान पर।

उस  शख़्स  ने छुआ है  बुलन्दी का जो निशाँ,
पहुँचा नहीं  है कोई  अभी  उस  निशान पर।

मछली  की  आँख  ख्वाब  में  ही भेदता रहा,
रक्खा  कभी  न तीर  को  उसने कमान पर।

बस्ती  के  आम    लोग  ही  सैलाब  में घिरे,
बैठे  रहे  जो  ख़ास  थे  ऊँची  मचान   पर।
                            ---ओंकार सिंह विवेके

(सर्वाधिकार सुरक्षित)

                      चित्र:गूगल से साभार

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