July 14, 2019

अश्क

हमें  अश्कों  को   पीना आ  गया है,
ग़रज़  यह  है  कि जीना आ गया है।

कठिन कब तक न हों सूरज की राहें,
 दिसम्बर  का   महीना  आ  गया  है।

 करो  कुछ  फ़िक्र इसके संतुलन की,
 भँवर  में  अब  सफीना  आ  गया  है।

 हमारी   तशनगी   को देखकर  क्यों,
 समुंदर   को   पसीना   आ  गया  है।

 अगर  है  उनकी फ़ितरत ज़ख्म देना,
 हमें  भी  ज़ख्म  सीना  आ  गया  है।
                    ---ओंकार सिंह विवेक
                     (सर्वाधिकार सुरक्षित)

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