हमें अश्कों को पीना आ गया है,
ग़रज़ यह है कि जीना आ गया है।
कठिन कब तक न हों सूरज की राहें,
दिसम्बर का महीना आ गया है।
करो कुछ फ़िक्र इसके संतुलन की,
भँवर में अब सफीना आ गया है।
हमारी तशनगी को देखकर क्यों,
समुंदर को पसीना आ गया है।
अगर है उनकी फ़ितरत ज़ख्म देना,
हमें भी ज़ख्म सीना आ गया है।
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ग़रज़ यह है कि जीना आ गया है।
कठिन कब तक न हों सूरज की राहें,
दिसम्बर का महीना आ गया है।
करो कुछ फ़िक्र इसके संतुलन की,
भँवर में अब सफीना आ गया है।
हमारी तशनगी को देखकर क्यों,
समुंदर को पसीना आ गया है।
अगर है उनकी फ़ितरत ज़ख्म देना,
हमें भी ज़ख्म सीना आ गया है।
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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