ग़ज़ल-ओंकार सिंह'विवेक'
कभी तो चाहता है यह बुलंदी आसमानों की,
कभी दिल माँग करता है मुसलसल ही ढलानों की।
अभी भी सैकड़ों मज़दूर हैं फुटपाथ पर सोते,
अगरचे बात की थी आपने सबको मकानों की।
उसूलों की पज़ीरायी, वफ़ा-अख़लाक़ के जज़्बे,
इन्हें बतला रहें हैं लोग बातें दास्तानों की।
चला आयेगा कोई फिर नया इक ज़ख्म देने को,
कमी कब है ज़माने में हमारे मेहरबानों की।
नदी को क्या रवानी, सोचिये हासिल हुयी होती,
ग़ुलामी वो अगर तसलीम कर लेती चटानों की।
-------------ओंकार सिंह'विवेक'
@सर्वाधिकार सुरक्षित
कभी तो चाहता है यह बुलंदी आसमानों की,
कभी दिल माँग करता है मुसलसल ही ढलानों की।
अभी भी सैकड़ों मज़दूर हैं फुटपाथ पर सोते,
अगरचे बात की थी आपने सबको मकानों की।
उसूलों की पज़ीरायी, वफ़ा-अख़लाक़ के जज़्बे,
इन्हें बतला रहें हैं लोग बातें दास्तानों की।
चला आयेगा कोई फिर नया इक ज़ख्म देने को,
कमी कब है ज़माने में हमारे मेहरबानों की।
नदी को क्या रवानी, सोचिये हासिल हुयी होती,
ग़ुलामी वो अगर तसलीम कर लेती चटानों की।
-------------ओंकार सिंह'विवेक'
@सर्वाधिकार सुरक्षित
चित्र गूगल से साभार
Beautiful 👌👌👌
ReplyDeleteThank you
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