आपकी अदालत में नई ग़ज़ल पेश है :
नई ग़ज़ल
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सुख़न के फूल बिखराता रहूँगा,
यूँ ही महफ़िल को महकाता रहूँगा।
गया परदेस तो आया न वापस,
कहा था लाल ने आता रहूँगा।
सज़ा दे दीजे चाहे सख़्त जितनी,
मैं सच को सच ही बतलाता रहूँगा।
'अता की है दिलेरी रब ने ऐसी,
ग़मों के बीच मुस्काता रहूँगा।
चलूँ माँ-बाप के क़दमों में बैठूँ,
वगरना ठोकरें खाता रहूँगा।
वो दे दें उलझनें देनी हों जितनी,
मैं हर उलझन को सुलझाता रहूँगा।
रहेगी जब तलक साँसों की सरगम,
ग़ज़ल से इश्क़ फ़रमाता रहूँगा।
©️ ओंकार सिंह विवेक
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