दोस्तो नमस्कार 🙏🙏
कई दिन बाद तरही मिसरे पर एक नई ग़ज़ल कही है।आप अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य ही अवगत कराएं :
ग़ज़ल
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बे-दिली से ही सही पर दे दिया,
बोलने का उसने अवसर दे दिया।
वरना कैसे टूटता शब का ग़ुरूर,
शुक्र है जो रब ने दिनकर दे दिया।
उनको ये 'आला सुख़नवर का ख़िताब,
जानते हैं किस बिना पर दे दिया।
आदमी सोता रहा फुटपाथ पर,
काग़ज़ों में आपने घर दे दिया।
ग़म-ख़ुशी की धूप-छाया ने 'विवेक',
ज़िंदगी को रूप मनहर दे दिया।
©️ ओंकार सिंह विवेक
Very nice
ReplyDeleteThanks
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