इस वर्ष का ग़ज़ल कुंभ हमेशा की तरह पूरी आन-बान और शान के साथ विले पार्ले मुंबई में 13 और 14 जनवरी,2024 को प्रख्यात ग़ज़लकार श्री दीक्षित दनकौरी जी के कुशल संयोजन में सम्पन्न हुआ।
यों तो इससे पहले भी दो बार मैं प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले इस साहित्यिक अनुष्ठान का हिस्सा बन चुका हूं परंतु इस बार की हिस्सेदारी कई कारणों से अविस्मरणीय हो गई सो इस यात्रा के रोचक संस्मरण आपके साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं।
(कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ करते हुए ख़ाकसार)
इस बार रामपुर से हम चार साथियों का ग़ज़ल कुंभ मुंबई में जाना तय हुआ था। सुरेंद्र अश्क रामपुरी,प्रदीप राजपूत माहिर,राजवीर सिंह राज़ और मैं।अश्क रामपुरी जी अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के चलते साथ नहीं जा पाए उनकी कमी हमें लगातार महसूस होती रही। दनकौरी जी के प्रतिवर्ष के इस शानदार आयोजन की तर्जुमानी उनका यह शानदार शेर करता है :
ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत की ख़ुश्बू से तर है,
चले आईए ये अदीबों का घर है।
--- दीक्षित दनकौरी
(कार्यक्रम संयोजक दीक्षित दनकौरी जी का संबोधन)
कार्यक्रम के दूसरे दिन के पहले सत्र में रामपुर (उत्तर प्रदेश)से हम तीनों लोगों ने भी अपना कलाम पेश किया।काफ़ी दाद-ओ-तहसीन से नवाज़ा गया हम लोगों को।
हम लोगों ने उस महफ़िल में अपनी-अपनी जो ग़ज़लें पेश कीं उनका एक-एक शेर भी सुनते/पढ़ते चलें :
चिंता ऐसे है मन के तहख़ाने में,
जैसे कोई घुन गेहूं के दाने में।
ओंकार सिंह विवेक
नफ़रतो झूठ का बाज़ार बदलकर देखें,
आओ इस दुनिया की रफ़्तार बदलकर देखें।
प्रदीप माहिर
क्यों सुकूं की वो आरज़ू करते,
जिनके ख़ंजर लहू-लहू करते।
राजवीर सिंह राज़
ऐसे आयोजनों में सिर्फ़ अपना ही कलाम सुनाना मक़सद नहीं होता है बल्कि तमाम पुराने और नए लोगों को सुनकर उनकी फ़िक्र और मे'यार का भी पता चलता है।इससे अपना आकलन और रचनाधर्मिता में गुणात्मक सुधार करने का अवसर प्राप्त होता है। सो इस अवसर का हम सबने भरपूर लाभ उठाया। कविता/शायरी इतनी भी आसान चीज़ नहीं है। इसके लिए जिगर का ख़ून जलाना पड़ता है।
प्रसंगवश मुझे यह शेर याद आ गया :
सोच की भट्टी में सौ- सौ बार दहता है,
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है।
-- सत्य प्रकाश शर्मा
ग़ज़ल कुंभ में ग़ज़ल पाठ के बाद हम लोगों का मुंबई और गोवा का एक छोटा सा भ्रमण कार्यक्रम भी रहा। आईए अब आपको उससे रूबरू करवाते हैं।
मुंबई मैं हम लोग अपने साथी राजवीर सिंह राज़ के आत्मीय संबंधी प्रिय अंकित कुमार जी के मेहमान रहे। अगर मैं अंकित जी की मेहमान नवाज़ी और आत्मीयता का ज़िक्र न करूं तो यह ब्लॉग पोस्ट अधूरी रहेगी।
अंकित जी को हमने एक बहुत ही हंसमुख और मस्तमौला इंसान पाया।जिस ज़िंदादिली और मुहब्बत से दो दिन उन्होंने हमारी मेज़बानी की उससे लगा ही नहीं कि हम उनसे पहली बार मिल रहे हैं।अंकित जी मुंबई में शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया में मैकेनिकल इंजीनियर हैं।अपने व्यस्ततम समय में से समय निकालकर अंकित जी ने हमें मुंबई के महत्वपूर्ण स्थलों का भ्रमण कराया।उनकी आवभगत और आत्मीयता के लिए आभार जैसा शब्द बहुत छोटा पड़ेगा अत: मैं उसे प्रयोग नहीं करना चाहता। हां,किसी मशहूर शायर द्वारा कहा गया यह शेर मैं ज़रूर प्रिय अंकित जी की शान में पढ़ना चाहूंगा:
कितने हसीन लोग थे जो मिल के एक बार,
आंखों में जज़्ब हो गए दिल में समा गए।
--- अज्ञात
अंकित जी के यहां रहने के दौरान एक दिलचस्प अनुभव उनकी किचिन में मिलकर खाना बनाने का भी रहा उसका ज़िक्र भी यहां ज़रूरी लगता है।
स्थानीय भ्रमण के दौरान जब थकान हो गई तो एक दिन हमने आराम करने का निश्चय किया क्योंकि उसी दिन शाम को हमारी गोवा के लिए फ्लाइट थी।अंकित भाई के ऑफिस चले जाने के बाद हम तीनों साथियों ने निश्चय किया कि आज खाना घर पर ही बनाया जाए क्योंकि बाहर का खाते-खाते उकता भी चुके थे सो किसी बड़े शैफ़ की तरह तीनों जुट गए अपने-अपने जौहर दिखाने बावर्चीख़ाने में। किसी ने सब्ज़ी काटी,किसी ने आटा गूंथा और किसी ने बर्तन साफ़ किए। सहकारिता का अद्भुत दृश्य उत्पन्न हुआ किचिन में।एक घंटे में आलू टमाटर, मिक्स वेज,रायता ,सलाद और रोटी आदि सब तैयार थीं।
सबने भरपेट भोजन किया और अंकित जी के लिए शाम का खाना उनके फ्रिज में रख दिया।अपने द्वारा बनाया गया छप्पन भोग (भले ही सब्ज़ी में नमक अधिक हो, रोटियां कुछ जली हुई हों पर आदमी को अपने द्धारा तैयार किया हुआ खाना छापन भोग से कम नहीं लगता 😀😀) सबने व्हाट्सएप पर अपने -अपने घर साझा किया तो फटाफट रिप्लाई भी आने लगे -- "हमने तो कभी किचिन में आते देखा नहीं, तुम तो छुपे रुस्तम निकले।घर आकर कम से कम एक दिन अपने हाथ का बना खाना तो खिलाकर दिखाओ। हम भी तो देखें कि कौन शैफ संजीव कपूर है और कौन विकास खन्ना, वगैरहा वगैरहा ---"
हम सब बड़े पछताए व्हाट्सएप पर तस्वीर साझा करके।पर क्या कर सकते थे। भरोसा दिलाया कि कि चलो भाई कोशिश करेंगे घर आकर । आख़िर मरता क्या न करता।
खाना ख़ज़ाना 👇
इस अद्भुत साहित्यिक यात्रा के अंतिम चरण में एक दिन साउथ गोवा भ्रमण का भी रहा। गोवा ट्रिप भी प्रिय भाई अंकित जी के सौजन्य से ही प्रायोजित रही।गोवा यात्रा में हमारे टूरिस्ट गाइड रहे भाई दामोदर मणि उर्फ़ दीपक जी(उन्होंने हमें अपना नाम दीपक ही बताया था)। दामोदर जी ने हमारी इस शॉर्ट विजिट को अपनी गाइडिंग से यादगार बना दिया। दीपक भाई के बारे में कहूं तो बहुत विनम्र व्यक्ति,हिंदी और अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़,बीच- बीच में उर्दू मिश्रित हिंदी ज़ुबान में बात करना। उनकी इन सब बातों ने बहुत प्रभावित किया।उन्होंने बताया कि वह कई साल दुबई में काम कर चुके हैं और अब गोवा में फुल टाइम टुअर ऑपरेटिंग का काम देखते हैं।बहुत दिलचस्प इंसान लगे हमें दीपक जी उर्फ़ दामोदर जी।देश और गोवा के हालात की बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं।उनकी पर्सनालिटी और पहनावे में हमें फिल्म स्टार कमल हासन की झलक दिखाई पड़ी।इसके लिए उन्हें कॉम्प्लीमेंट दिया तो उनकी मुस्कुराहट देखने लायक़ थी। टूरिस्ट गाइड/ऑपरेटर में जो ख़ूबियां होनी चाहिए हमें दीपक जी में उससे कहीं अधिक दिखाई दीं।
एक फिल्मी गीत की ये पंक्तियां भाई दीपक जी के नाम :
आते-जाते ख़ूबसूरत आवारा सड़कों पे,
कभी-कभी इत्तेफ़ाक़ से,
कितने अंजान लोग मिल जाते हैं।
उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं,
कुछ याद रह जाते हैं।
(यात्रा के अंतिम पड़ाव पर जब दीपक जी ने हमें गोवा एयरपोर्ट पर ड्रॉप किया यह उससे कुछ समय पहले उनके साथ ली गई तस्वीर है)
इस यादगार यात्रा के संस्मरण और प्रसंग तो बहुत हैं आपसे साझा करने के लिए पर पोस्ट लंबी होने के कारण बोझिल न हो जाए इसलिए इस शेर के साथ बात समाप्त करता हूं :
सैर कर दुनिया की ग़ाफिल ज़िंदगानी फिर कहां,
ज़िंदगानी गर रही तो ---------
--- ख़्वाज़ा मीर दर्द
प्रतुतकर्ता : ओंकार सिंह विवेक
रोचक संस्मरण
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
Deleteअतिशय आभार आपका।
ReplyDeleteVah, adbhut
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteलाजवाब पोस्ट मान्यवर! सारी यादें ताज़ा हो आईं!👍👍👌👌💐💐💐
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।
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