September 15, 2020

बीमारी वाह!वाह! की


सोशल मीडिया और कवि व अन्य साहित्यकार
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            -----@CRओंकार सिंह विवेक

वह ज़माना गया जब साहित्यकार किसी पत्र-पत्रिका  में छपने अपनी रचना भेजा करते थे और लंबे समय तक बड़ी बेसब्री से स्वीकृति की सूचना प्राप्त होने की प्रतीक्षा किया करते थे।यह अलग बात है कि अधिकाँश मामलों में संपादक के अभिवादन और खेद की टिप्पणी ही कवियों या लेखकों के हिस्से आती थी।जिनकी रचना प्रकाशित होने के लिए स्वीकृत हो जाती थी वे अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानते थे।

किंतु आज परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल चुकी हैं।इस दौर में रचनाकार इस चक्कर में बिल्कुल नहीं पड़ता । जो कुछ भी वह लिखता है उसे फ़ौरन से भी पहले सोशल मीडिया ( फेसबुक या व्हाट्सएप्प आदि )पर परोस देता है और फिर तुरंत ही लाइक और प्रशंसा भरे कमेंट्स का इंतज़ार शुरू कर देता है।सोशल मीडिया की इस सुविधा से कवि को इतनी संतुष्टि तो ज़रूर हुई  है कि वह बिना कोई रिजेक्शन झेले छप जाता है परंतु इसका दूसरा पहलू जो बहुत महत्वपूर्ण है उसकी तरफ कवि का ध्यान नहीं जाता।पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु भेजी गई रचनाओं के बार बार अस्वीकृत होने पर रचनाकार अपनी रचना में जो निखार लाता था वह अवसर अब उसके हाथ से जाता रहा।
आज अधिकाँश कवि सोशल मीडिया पर अपनी रचनाओँ पर कोई आलोचनात्मक टिप्पणी देखना पसंद नहीं करते।चाहे उन्होंने कैसा भी परोसा हो उन्हें बस "वाह वाह!बहुत स्वादिष्ट है"कि टिप्पणी की ही दरकार होती है जो स्वयं उनका ही अहित करती है ।क्योंकि ऐसी अपेक्षा करके वे अपनी रचना में निखार के सारे रास्ते बंद कर देते हैं।मैं मानता हूँ कि आह !या वाह !जैसी टिप्पणियाँ प्रोत्साहन की दृष्टि से महत्व रखती हैं परंतु उससे कहीं ज़ियादा ज़रूरी वे आलोचनात्मक और समीक्षात्मक टिप्पणियाँ होती हैं जो कवि या रचनाकार की रचना/कविता में निखार का मार्ग प्रशस्त करती हैं।कई बड़े सीनियर कवियों और अन्य साहित्यकारों को मैंने इस मामले में धीरज खोते देखा है ।वे अक्सर यही शिकायत करते हैं कि उनकी रचना पर कोई आह !या वाह !क्यों नहीं कर रहा।
मेरे विचार से इस मामले में धैर्य धारण करने की आवश्यकता है।रचना पोस्ट करने के बाद हमें वाह! वाह !की टिप्पणियों की बहुत ज़ियादा अपेक्षा मन में पाल कर नहीं बैठना चाहिए।अगर रचना में दम होगा तो आह !या वाह! जैसी टिप्पणियाँ तो लोगों के क़लमऔर मुँह से स्वतः ही निकलेंगी।
हो सकता है बहुत से साथी मेरी बात से सहमत न हों पर मैंने तो इसी का पालन करते हुए अपनी रचनाओं में सुधार किया है और अच्छे परिणाम भी प्राप्त किए हैं।

मेरा एक शेर---
बेसबब  ही  आपकी  तारीफ़  जो  करने  लगें,
फ़ासला रक्खा करें कुछ आप उन हज़रात से।
                            ------ओंकार सिंह विवेक
(मिलते हैं कल फिर कुछ इसी तरह की चर्चा के साथ )

---ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार, समीक्षक व ब्लॉगर( सर्वाधिकार सुरक्षित )

2 comments:

  1. जब लेखनी से लगाव हो जाए तो लेखन के सामने कुछ भी मायने नहीं रखता है और यह आपने सिद्ध कर दिया है. आप हमारे आज के मुन्शी प्रेम चंद हो.

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  2. भाई उत्साहवर्धन हेतु आभार

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