दोहे -ओंकार सिंह विवेक
जिससे मिलकर बाँटते,अपने मन की पीर,
मिला नहीं ऐसा हमें, कोई भी गम्भीर।
भाषण की हद तक रही,सच्ची-अच्छी बात,
नहीं धरातल पर कभी,बदले कुछ हालात।
और अधिक मजबूत हो,रिश्तों की बुनियाद,
समय समय पर हो अगर,आपस में संवाद।
पहले चुभती थी सदा,जिनकी हर इक बात,
अब उनका ही मौन क्यों,खलता है दिन-रात।
जिसने भी झेले यहाँ, ग़म के झंझावात,
मिली उसी को अंत में, ख़ुशियों की सौग़ात।
------ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
जिससे मिलकर बाँटते,अपने मन की पीर,
मिला नहीं ऐसा हमें, कोई भी गम्भीर।
भाषण की हद तक रही,सच्ची-अच्छी बात,
नहीं धरातल पर कभी,बदले कुछ हालात।
और अधिक मजबूत हो,रिश्तों की बुनियाद,
समय समय पर हो अगर,आपस में संवाद।
पहले चुभती थी सदा,जिनकी हर इक बात,
अब उनका ही मौन क्यों,खलता है दिन-रात।
जिसने भी झेले यहाँ, ग़म के झंझावात,
मिली उसी को अंत में, ख़ुशियों की सौग़ात।
------ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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