पेश है नई ग़ज़ल
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ग़ज़ल
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कण-कण में त्रिपुरारी है,
उसकी महिमा न्यारी है।
ऊँचे लाभ की सोचेगा,
आख़िर वो व्यापारी है।
दो पद, दो सौ आवेदन,
किस दर्जा बे-कारी है।
स्वाद बताता है इसका,
माँ ने दाल बघारी है।
काहे के वो संन्यासी,
मन पूरा संसारी है।
चख लेता है मीट कभी,
वैसे शाकाहारी है।
उससे कुछ बचकर रहना,
वो जो खद्दरधारी है।
©️ ओंकार सिंह विवेक